Wednesday, June 21, 2023

बुखार क्या है ?

 



बुखार से संबंधित जानकारियां
बुखार क्या है ?
मनुष्य का सामान्य तापमान 36 . 8 प्लस माइनस 0 . 4 या 98 . 4 प्लस माइनस 0 . 7 डिग्री f  होता है | इससे ऊपर मुँह के अंदर का तापमान बुखार माना जायेगा |
सामान्य तापमान क्या है ? और यह क्यों है ?
* जैविक प्रक्रियाएं सबसे जटिल रसायनिक प्रक्रियाएं होती हैं |
* ज्यादा विकसित जीवों में ( जैसे की स्तनधारी जीव ) ये ज्यादा जटिल होती हैं |
* सभी प्रकार की रसायनिक प्रक्रियाओं के इष्टतम रूप के लिए एक उचित वातावरण जरूरी है |
* तापमान इन रसायनिक प्रक्रियाओं के लिए वातावरण का सबसे महत्व पूर्ण हिस्सा है |
* ये इष्टतम तापमान ही इन रसायनिक प्रक्रियाओं के लिए सबसे उचित है -सामान्य तापमान माना जायेगा |  मनुष्य का सामान्य तापमान 36 . 8 प्लस माइनस 0 . 4 डिग्री सेंटीग्रेड या 98 . 4 प्लस माइनस 0 . 7 डिग्री f  होता है |
मनुष्य तापमान को सामान्य कैसे रखता है ?
*मानव मष्तिष्क का एक हिस्सा जिसे हाईपोथैलेमस कहते हैं -- थर्मोस्टैट के रूप में काम करता है , यानि कि एक सामान्य तापमान को बनाये रखना |
* यह कार्य वह शरीर द्वारा ऊष्मा उत्पादन तथा ऊष्मा निकासी के संतुलन को बना कर करता है |
* शरीर में ऊष्मा उत्पादन मुख्य रूप से मांसपेशियों के काम के दौरान एवं जिगर द्वारा होती है |
* ऊष्मा निकासी त्वचा द्वारा सतह से सीधी एवं पसीने से होती है | 
* कुछ ऊष्मा हम साँस द्वारा भी शरीर से निकालते हैं |
* इसी ऊष्मा का उत्पादन व निकासी का संतुलन ही तापमान को सामान्य बनाये रखता है | 
शरीर के तापमान मापने का सही तरीका क्या है ?
* शरीर का तापमान थर्मामीटर द्वारा ही नापा जाता है|
* थर्मामीटर को हमेशा धो कर ही प्रयोग करें |
* तापमान नापने से पहले थर्मामीटर के पारे को झटका देकर नीचे उतार लें |
* फिर थर्मामीटर को कम से कम दो से तक जीभ के नीचे  रखें |
* और बुखार देख लें |
* बच्चों एवं बेहोश मरीजों में बगल में भी बुखार देखा जा सकता है एवं जो तापमान आये उसमें एक डिग्री फारंहाईट जोड़ लें |
* आजकल डिजिटल थर्मामीटर ज्यादा प्रयोग में होते हैं |  जिसमें पारा नहीं होता सीधा इस्तेमाल किया जा सकता है | 
बुखार क्यों होता है ?
* बुखार कई प्रकार के हानिकारक उत्तेजक के खिलाफ शरीर की एक प्रक्रिया है |
* हानिकारक तत्वों से हमारे शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली उत्तेजित हो जाती है ताकि उसके दुष्प्रभाव को दूर किया जा सके |
* बुखार भी उसी प्रतिरक्षा प्रणाली का एक महत्वपूर्ण काम है -- उस हानिकारक तत्व को ख़त्म करने के लिए |
* परन्तु कई बार यह संतुलन नहीं बन पाता एवं बुखार ही स्वयं के शरीर पर दुष्प्रभाव  डाल देता है |
बुखार कैसे होता है?
* जब भी कोई हानिकारक उत्तेजक हमारे शरीर में दाखिल होता है तो हमारे खून की सफेद कोशिकाओं से कुछ ऐसे रसायन निकलते हैं जो मस्तिष्क में हाइपोथैलेमस स्थित थर्मोस्टेट को ऊपर वाले तापमान पर निर्धारित कर देते हैं ।
* इस स्थिति में हमारा शरीर इस तरह से काम करता है, जिससे ऊष्मा अधिक उतपन्न हो ,क्योंकि मांसपेशियां ही ऊष्मा उत्पादन का मुख्य स्रोत हैं।
* वह तेजी से सिकुड़नी शुरू हो जाती हैं और व्यक्ति को कम्पन होने लगती है।
* दूसरा शरीर से ऊष्मा निकासी कम हो , यह कार्य वह त्वचा में स्थित खून की नसों में सिकुड़न पैदा कर के करता है । यही कारण है कि जब बुखार होता है तो व्यक्ति को ठंड महसूस होती है ।
* अपने आप या दवाओं के प्रभाव में जब बुखार में सुधार होता है तो मस्तिष्क स्थित हाईपोथैलेमस अपने सामान्य तापमान पर निर्धारित हो जाता है तो ऐसी स्थिति में ऊष्मा की निकासी बढ़ जाती है । इस स्थिति में शरीर से ऊष्मा की निकासी पसीने द्वारा होती है।

~~बुखार के लक्षण:--
* शरीर का गर्म महसूस होना
* शरीर में दर्द होना
* शारीरिक क्षमता में कमी आना
* मानसिक रूप से भी कमजोर महसूस करना
* बुखार के ये सभी लक्षण हर प्रकार के  बुखार में होंगे चाहे वो किसी भी कारण से क्यों न हो।
~~बुखार होने की स्तिथि में क्या करें?------
* सबसे पहले थर्मामीटर द्वारा बुखार का सही आकलन करें
* बुखार महसूस होना और बुखार होना  अलग अलग बातें हैं ।
* कई बार व्यक्ति किसी और कारण से ठीक महसूस न होने को ही बुखार मान लेता है - जबकि उसका निदान बिल्कुल अलग है।
* समय के अनुसार बुखार की तालिका बनाई जाए जिससे बुखार का कारण जानने में डॉक्टर को मदद मिलती है ।
* स्वयं औषधि लेने में जल्दी न करें , मुख्य से एंटीबायोटिक्स।
* एंटीबायोटिक्स एक दो खुराक लेने से फायदा तो नहीं होता लेकिन डॉक्टर के लिए बुखार का कारण जानना मुश्किल और कई बार असम्भव हो जाता है।
* इस तरह दवाई लेने से आसानी से ठीक होने वाले संक्रमण का इलाज भी काफी मुश्किल हो जाता है ।
* स्वयं मरीज को केवल पैरासिटामोल ही लेनी चाहिए ।
* ठंडे पानी से शरीर का टकोर कर सकते हैं।
* यदि मरीज ज्यादा ही बीमार दिखता है , बड़ -बड़ा  रहा है , सांस लेने में दिक्कत है, बहुत ज्यादा टट्टी एवम उल्टी है, इस स्तिथि में तो डॉक्टर को दिखाना और भी जरूरी है।
* ऐसा मानना है कि केवल मलेरिया की दवाई मरीज ले सकता है । वह भी किसी गांव के किसी कर्मचारी द्वारा पहले अपने खून की स्लाइड बनवा कर या ई.डी. टी.ए. की शीशी में थोड़ा सा खून का सैम्पल ले लिया जाए। उसके बाद ही मलेरिया की दवाई ली जा सकती है।इस सैम्पल को अगले दिन टैस्ट किया जा सकता है ।
~~बुखार के कारण:----
* बुखार के कारणों को हम मुख्य रूप से तीन कारणों में विभाजित करेंगे।
1.संक्रमण (Infections).
2. प्रतिरक्षा विकिरण(Autoimmune/inflammatory)
3. कैंसर(Cancer)
* संक्रमण से होने वाले बुखार पूरे शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली के परिणाम का ही एक हिस्सा हैं,फिर भी अनेक संक्रमणों को दो प्रकार से अध्ययन कर सकते हैं।
शरीर के प्रभाव होने के अनुसार
a. एकल अंग तंत्र संक्रमण(Single Organ Infections)
b. सामान्यीकृत संक्रमण( Generalised Infections )
संक्रमण के अनुसार --
बैक्टीरिया संक्रमण, वायरस संक्रमण, परजीवी संक्रमण (प्रोटोजोआ एवम शरीर को संक्रमण करने वाले कीड़े), फफूंदी।
-एक अंग तंत्र संक्रमण (Single Organ System Infections):--
किसी एक विशेष अंग प्रणाली के संक्रमण - इसमें बुखार के लक्षणों के साथ विशिष्ट प्रभावित अंग प्रणाली के लक्षण मुख्य होते हैं --
1. श्वास प्रणाली के संक्रमण(Respiratory Infection)
2. पेट और आंत्र संक्रमण ( Shastri intestinal tract infections)
3. गुर्दे एवम मूत्र प्रणाली के संक्रमण(Kidney and Urinary tract infections)
4. त्वचा के संक्रमण( Skin Infections)
5. मस्तिष्क के संक्रमण(Meningitis and encephalitis infections)
~~सामान्यीकृत संक्रमण:---- (Generalised Infection)
ऐसे संक्रमण जो जो किसी एक अंग प्रणाली को विशेष रूप से प्रभावित नहीं करते बल्कि पूरे शरीर को एक जैसा ही प्रभावित करते हैं । मुख्य हैं:-
#मलेरिया
# टॉयफायड
# कई तरह के वायरस से होने वाले बुखार:-
जिसमें चिकनगुनिया एवम डेंगू भी दो प्रकार के वायरस से होने वाले संक्रमण हैं।
#रिक्टेशिएल बुखार जैसे कि टायफस बुखार।
तापघात (Heat Stroke)
यह बुखार अन्य बुखारों से भिन्न है ।
*यह संक्रमण नहीं है
* यह वातावरण में बड़ी गर्मी की वजह से होता है।
* इसमें शरीर अपनी ऊष्मा अधिक नहीं बनाता परन्तु वातावरण का तापमान अधिक होने की वजह से शरीर से ऊष्मा निकासी नहीं कर पाता ,बल्कि वातावरण से उष्मा ग्रहण करनी शुरू कर देता है ।
* इसमें यदि उपचार समय पर न हो तो बहुत ही घातक सिद्ध होता है ।
* हमारे देश में इसके बारे में जानना बहुत जरूरी है क्योंकि हमारा देश मुख्यत गर्म प्रदेश है ।
* हमारे देश की आधी से ज्यादा आबादी खेत के काम से जुड़ी हुई है ।
* तेज गर्मी का शुरू होना एवम खेतों में काम अधिक हो जाना दोनों ही इकट्ठे शुरू होते हैं इसलिए हमारे देश की बहुत बड़ी आबादी इस बीमारी के जोखिम में रहती है।
* तापघात में शुरू में केवल थकावट महसूस होती है जिसका कारण शरीर में पानी तथा नमक की कमी होता है ।(Heat Exhaustion )
* इसके उपरांत शरीर में जकड़न आने लग जाती है जो पोटाशियम एवम मैग्नीशियम जैसे लवणों की वजह से होती है । (Heat Cramps)
* इसके बाद मरीज को तेजी से बुखार होने लगता है (Heat Pyrexia)
* तेज बुखार होने के बाद मरीज की स्तिथि बहुत जल्दी ही खराब होने लगती है और उसके शरीर के महत्वपूर्ण अंग जैसे कि गुर्दे , फेफड़े ,हृदय एवम जिगर काम करना बंद कर देते हैं और जल्दी ही मरीज बेहोशी की हालत में पहुंच जाता है। (Heat Stroke)
* कुछ बीमारियां तापघात से होने वाले खतरों को बढ़ा देती हैं । जैसे कि मलेरिया , आंत्रों का संक्रमण , टी.बी. , खून की कमी , शुगर व थायरॉइड की की बीमारी इत्यादि।
* शराब एवम अन्य नशे भी तापघात के लिए बहुत हानिकारक हैं ।
तापघात की रोकथाम:-
* हल्के और सूती कपड़े पहनें
* ज्यादा से ज्यादा पानी व तरल पदार्थ लें।
* बाहर जाते समय चश्में , टोपी, या छतरी और चप्पल का प्रयोग करें ।
* पहले आधे दिन में ही बाहर या मजदूरी के कामों का निपटारा करें।
* लस्सी, नींबू पानी ,छाछ , सीत पियें और बाहर जाते समय पानी साथ लेकर जाएं।
* छोटे बच्चों या पालतू जानवरों को खड़े किए गए वाहनों पर नहीं छोड़ें।
* 12 से 3.30 बजे तक बाहर जाने से बचें ।
* घर के खिड़की व दरवाजे खोल कर खाना बनाएं।
तापघात का इलाज :---
तापघात के इलाज के मुख्य नियम हैं--
* इलाज शीघ्र ही शुरू कर देना चाहिए , क्योंकि शुरू में इलाज आसान है और कहीं भी हो सकता है ।
* मरीज को ठंडे स्थान पर लेजाया जाए।
* ठंडे पानी व बर्फ की पट्टी पूरे शरीर व मुख्य रूप से सिर पर जरूर की जाए
* पानी एवम अन्य लवण जैसे कि सोडियम, पोटाशियम , मैग्नीशियम की कमी को पूरा किया जाए।
* जब बीमारी ज्यादा बढ़ जाये यानि कि हीट स्ट्रोक की हालत में जब मरीज के मुख्य अंग काम करना बंद कर देते हैं, उस स्तिथि में इलाज बड़े अस्पताल में ही संभव हो पाता है। इस दौरान भी ठंडे पानी और बर्फ की पट्टी करना न भूलें
* तापघात में मलेरिया का का इलाज साथ में ही कर देना गलत बात नहीं है ।
***वायु सम्बन्धी रोगों की रोकथाम:---
उदाहरण:
-साधारण सर्दी
- निमोनिया
- इन्फ्लूएंजा
-खसरा
-तपेदिक
- कनपेड़
- छोटी माता ( चिकनपॉक्स)
रोकथाम ----------
* ताजी हवा में सांस लें
* छींकने या खांसी करते समय रूमाल का इस्तेमाल करें ।
* दूसरों को रोगग्रस्त व्यक्ति से दूर रखें
* संक्रमण रोकने के लिए चेहरे पर पट्टी लगाएं
* यहां वहां थूकना नहीं चाहिए।
* टी.बी.के मरीज की बलगम को जला दें।
* मरीज से हाथ मिलाने से बेहतर नमस्कार करना बेहतर है।
* कम से कम 20 सैकण्ड के लिए पानी व साबुन से हाथ धोना चाहिए ।
****
जल जनित रोगों की रोकथाम (Prevention of water diseases)
उदाहरण
-खूनी दस्त
-हैजा
-टाइफाइड
-पीलिया
-हेपेटाइटिस
-पोलियो पेट के कीड़े आदि रोकथाम :-
*फिल्टर किया हुआ / उबला हुए पानी का प्रयोग करें
*खाना खाने से पहले हाथ अवश्य धोएं।
*बर्तनों की नियमित रूप से साफ करें ।
*अच्छी तरह धोकर भी  फल खाएं और खाना अच्छी तरह पका कर ही खाना चाहिए।
*नाखूनों को नियमित रूप से काटें और साफ रखें।
*साफ शौचालय का प्रयोग करें।  नोट: ऐसा माना गया है कि जन स्वास्थ्य विभाग द्वारा साफ या फिल्टर किया गया पानी ही बीमारियों को दूर करने में लाभदायक होता है , यदि जन स्वास्थ्य विभाग द्वारा दिया गया पानी शुद्धता के मापदंड पर उचित नहीं है तो भी पारिवारिक या व्यक्तिगत तौर पर  साफ (फिल्टर) किया गया पानी बीमारियां दूर करने में ज्यादा लाभदायक नहीं रहता। पीने के पानी और रोजमर्रा की जरूरत के पानी को अलग-अलग रख पाना आम व्यक्ति के लिए बहुत ही कठिन है।
**मच्छरों से होने वाली बीमारियों की रोकथाम**
(मलेरिया डेंगू चिकनगुनिया)
--मच्छरों से होने वाली बीमारियों को दूर करने के लिए व्यक्ति, समाज और सरकार को सबको मिलकर समन्वय के साथ कार्य करना पड़ता है ।
--सरकार का काम स्वास्थ्य संबंधी जानकारी उपलब्ध करवाना।
--नगरपालिका और पंचायत का काम साफ़ वातावरण उपलब्ध करवाना एवम मच्छरों के पैदा होने की जगह अनचाहे पानी को इकट्ठा होने से रोकना।
-- पारिवारिक जिम्मेदारी घर के अंदर सफाई रखना एवं मच्छरों को पैदा होने से रोकना।
--व्यक्तिगत तौर पर स्वयं को कपड़ों तथा रहन सहन के तरीकों से मच्छरों से काटे जाने से खुद को रोकना
**मच्छरों के पैदा होने की जगह व उनका समाधान**
-- पानी के बहाव में रूकावट तो नहीं है ।
--घर में कहीं पर भी बिना मतलब पानी इकट्ठा तो नहीं है ।
--पानी के सभी बर्तन नियमित रूप से साफ होते हैं ।
--जमीन में कहीं खड्डे तो नहीं है जहां बरसात का पानी इकट्ठा हो।
-- खासतौर पर रेफ्रिजरेटर एवं ए.सी.  में पानी इकट्ठा नहीं होने दें।
-- एयर कूलर में पानी नियमित रूप से सप्ताह में दो बार पूरी तरह से साफ करके पानी बदलें।
**व्यक्तिगत सावधानियां*
-- पूरी बाजू की कमीज व  या पैंट पहनें।
--सोते समय मच्छरदानी का प्रयोग करें।
--एयरकंडीशनर भी मलेरिया, डेंगू व चिकनगुनिया के  मच्छरों से सावधानी देता है ।
--मच्छरों को दूर करने वाली क्रीम भी लाभकारी है वह केवल  शरीर के खुले भाग पर ही लगाएं।
छोटे बच्चों पर मच्छरों को भगाने वाली क्रीम नहीं लगानी चाहिए।
-- जख्मों पर भी मच्छर भगाने वाली मशीन नहीं लगानी चाहिए।
--बीमार होने पर डॉक्टर से शीघ्र ही संपर्क करें।

**टाइफाइड बुखार**
कारण: बैक्टीरिया (Salmonella Typhi)
यह खाना या पानी के साथ हमारे शरीर में प्रवेश करता है। इसके उपरांत हमारी आंतों में स्थित सफेद ग्रंथियों में बढ़ना शुरू हो जाता है। लगभग शरीर में प्रवेश करने के सप्ताह के बाद ही हमारे खून से होता हुआ शरीर के विभिन्न अंगों में पहुंच जाता है। इस स्थिति में व्यक्ति को बुखार होना शुरू होना शुरू होता है जो शुरू में तो थोड़ा होता है और पांच सात दिन के बाद तेज बुखार होने लगता है । व्यक्ति को बुखार के साथ पेट में दर्द, कब्ज होना,दस्त होना, सोचने समझने की शक्ति में कमी आ जाना, नींद में बड़-बड़ाना जैसे लक्षण होते हैं।
समय पर इलाज न करने की स्थिति में दूसरे और तीसरे सप्ताह में मरीज की हालत ज्यादा गंभीर होती है। उचित इलाज से सभी मरीज ठीक हो जाते हैं। इलाज न होने की स्थिति में इस बीमारी की मियाद 3 महीने है, लेकिन उस स्थिति में लगभग 20%  मरीज अपनी ज्यां गंवा देते हैं ।
**हमारे समाज में इस बीमारी के प्रति बहुत भ्रांतियां हैं**
बुखार-- बुखार महसूस होने की स्थिति में बुखार को थर्मामीटर द्वारा अवश्य देखें । हर बुखार का अनुभव बुखार नहीं है और हर बुखार टाइफाइड नहीं है। यदि एक बार टाइफाइड हो जाए तो 3 माह के अंदर तो एक बार हो सकता है उसके उपरांत तीन साल तक दोबारा टाइफाइड हो ऐसा बहुत ही कम होता है।
   टाइफाइड का इलाज 15 दिन तक चलता है कम से कम 7 दिन बुखार उतरने के बाद तक। इस में कई बार ग्लूकोज या ग्लूकोज के रास्ते से दवाइयां भी देनी पड़ती हैं। टाइफाइड में मानसिक लक्षण भी होते हैं लेकिन हर मानसिक बीमारी टाइफाइड नहीं है।
**विडाल टैस्ट**(Widal Test) डॉक्टरी तौर पर  मान्य नहीं है। भारत में तो किसी का भी करवा लो, यहां तक कि यदि बुखार भी नहीं है तो पॉजिटिव आ जाएगा ।
कारण- एक तो टेस्ट की वैज्ञानिक मान्यता भी पूरी नहीं है और दूसरा करने का तरीका बहुत ही कम लेबोरेटरियों में उचित  है ।
**टाइफाइड  का निदान कैसे करें**
1.बुखार होने की स्थिति में बुखार तालिका बनाएं।
2. बुखार का कारण जाने बिना एंटीबायोटिक दवाई न दें।
3. ब्लड कल्चर ही टाइफाइड बीमारी का पक्का टैस्ट है।
4. यह 90 प्रतिशत से ज्यादा मरीजों में बीमारी का निदान करने में पूरी तरह से  सहायक है ।

**पीलिया (Infective Hepatitis)**
1. कारण एक वायरल इन्फेक्शन।
2.मुख्य रूप से चार प्रकार A,B,C,E.
3.B एवम C खून या खून के अंश से शरीर में प्रवेश करते हैं ।
4.A एवम E खाना या पानी से शरीर में प्रवेश करते हैं ।
पीलिया में सबसे पहले मरीज को बुखार होगा, भूख लगनी कम हो  जाएगी। उल्टी आएगी और उसके उपरांत पेशाब पीला हो जाएगा और आंखों में एवं शरीर में पीलापन आने लगेगा। बीमारी के लिए कोई दवाई नहीं है। बीमारी का अपना समय आम तौर पर 1 माह से 3 माह तक है। इस दौरान मरीज की खुराक पानी एवं लवनों की कमी होने को रोकना है। ऐसी खुराक दी जाती है जिसमें वसा बहुत ही कम हो , प्रोटीन ऐसे हों जो उचित श्रेणी के हों और कार्बोहाइड्रेट की मात्रा अधिक हो। जैसे कि --फल, सीत, उबले चावल, आलू , फलों का जूस इत्यादि। दूध भी मलाई उतरा हुआ ले सकते हैं। यदि मरीज मुंह से अपनी खुराक पूरी नहीं कर पा रहा तो ग्लूकोस चढ़ाना अनिवार्य हो जाता है । किसी भी प्रकार के जोहड़ में नहाने का कोई फायदा नहीं है।
B एवम C प्रकार का पीलिया कई बार लंबे समय के लिए शरीर में ग्रस्त कर जाता है । जो आगे जाकर हानिकारक सिद्ध हो सकता है, लेकिन विशेषज्ञ द्वारा इसका इलाज संभव है
**शिक्षा:-
पीलिया होने की स्थिति में पीलिया के प्रकार को जाना जाए।A एवं E में मरीज की खुराक और पानी का ख्याल रखा जाए। कभी-कभी पीलिया व्यक्ति के दिमाग को भी प्रभावित कर देता है। यहां तक कि व्यक्ति बेहोश हो जाए, और उसकी जान जोखिम में पड़ जाती है । इसलिए डॉक्टर को दिखाना जरूरी है।
***टायफस बुखार(Typhus fever)**
यह इतना आम बुखार तो नहीं है फिर भी इसके लिए जानना जरूरी है क्योंकि इसका शुरुआत में इलाज बहुत आसान है लेकिन बाद में बीमारी बढ़ने के बाद इलाज असंभव है। एक बैक्टीरिया जैसे विषाणु  वजह से होता है। जिसे रीक्टसियल कहते हैं और यह खेतों में होने वाले कीट के काटने से फैलती है। शुरू में केवल बुखार होता है और बाद में शरीर के सभी महत्वपूर्ण अंग काम करना बंद कर देते हैं ।
इलाज:- एंटीबायोटिक डॉक्सीसाइक्लिन(Doxycycline) इसके बारे में बता रहा हूं क्योंकि हमारे मित्र सत्यप्रकाश की मृत्यु इसी वजह से हुई थी।

अंधविश्वास का जाल 

 अंधविश्वास का जाल चार कारणों से फैलता है :-

1.शिक्षा की कमी/अनपढ़ता/ अज्ञानता
2.स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी
3. वैज्ञानिक चेतना (तर्क और विवेक) का ना होना
4.कुछ गलत /अशुभ हो जाने का डर/ असुरक्षा की भावना।
डर से समाज में अंधविश्वास बढ़ता ही जाता है । डर का साम्राज्य और आतंक इतना बड़ा है कि वह आम आदमी को व्यर्थ की बातों में उलझाए  रख कर उसे ढंग से जीने नहीं देता। पूरा जोर लगाया जा रहा है वर्तमान शाशकों द्वारा।
भगवान से डर
शैतान से डर
ग्रहों से डर
ग्रहों से डर
हाथ की रेखाओं से और जन्म कुंडली से डर
जादू टोने से डर
सड़क पर रखे दिये से डर
लटकाई नींबू -मिर्च से डर
कुत्ते के रोने से डर
बांई आंख के फड़कने से डर
और भी कई डर,
बस सारी जिंदगी डरते रहो और
नहरों नदियों में बहुत कुछ अच्छी गंदी चीजें बहाकर जल प्रदूषण बढ़ाते रहो और बीमारियों के मुंह में अपने को और अपने परिवार को धकाते रहो।
  तो इन डरों से, प्रदूषण से और बीमारियों की मार से कैसे बचा जाये?
एक ही उपाय है-- तर्क और विवेक का विकास। वैज्ञानिक सोच का विकास।

JSA pts data kishan pura

 



JSA pts data kishan pura chaupal.
2014...204 (7.10.14 ) से
2015...875
2016...1372
2017...2732
2018...1887
2019...1682
2020...3607
2021...15404
2022...2935
2023...2400 जून
Total...30098
***हुमायूंपुर मंगलवार***
2015...486 (6.1.15)
2016...533
2017...842
2018...1065
2019...1261
2020...227( upto 24.3.20)
2021...351( 6.4.21..26.10.21)
2022...904( From 5.4.22)
2023...678( upto June 20)

Saturday, June 10, 2023

Vitamin D Deficiency: 

 Vitamin D Deficiency: शरीर को स्वस्थ और हेल्दी रखने के लिए पोषक तत्वों और विटामिंस की जरूरत होती है. इसके लिए कई तरह के हेल्दी फूड्स का सेवन भी किया जाता है. अगर बॉडी में किसी भी विटामिन की कमी हो जाए तो कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है. विटामिन D भी सेहत के लिए बेहद जरूरी है. इसकी कमी से हड्डियों की कमजोरी, बाल झड़ना जैसी कई समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है. विटामिन डी का सबसे प्रमुख स्त्रोत सूर्य की किरणें हैं. लेकिन इसकी कमी होने पर डॉक्टर की सलाह से सप्लीमेंट लिए जा सकते हैं. विटामिन डी की कमी से शरीर में कई तरह के लक्षण दिखते हैं. आइए आपको विटामिन डी की कमी के लक्षण बताते हैं.


1.हड्डियों और कमर का दर्द: हेल्थलाइन में छपी एक खबर के मुताबिक विटामिन डी की कमी से शरीर की हड्डियां कमजोर होने लगती है. विटामिन डी की कमी होने पर हड्डियों या जोड़ों में दर्द शुरू हो सकता है. इसके अलावा अगर आपकी कमर में भी दर्द हो रहा है तो यह भी विटामिन डी की कमी का संकेत हो सकता है.

2.बाल झड़ना: बॉडी में विटामिन डी की कमी होने पर बाल टूटने लगते हैं. अगर आपके भी बाल झड़ने लगे हैं तो यह विटामिन डी की कमी के कारण हो सकता है. बालों का झड़ना शरीर में विटामिन डी की कमी का महत्वपूर्ण लक्षण होता है. ऐसे लक्षण दिखने पर आपको डॉक्टर से संपर्क करना चाहिए.

3.डिप्रेशन का शिकार: अगर आप भी डिप्रेशन में जा रहे हैं या एंजायटी हो रही है तो यह विटामिन डी का लक्षण हो सकता है. विटामिन डी की कमी के कारण लोगों के तनाव का लेवल बढ़ने लगता है. ज्यादा तनाव लेने के कारण आप डिप्रेशन और एंजायटी का शिकार हो सकते हैं.


4.वजन का बढ़ना: बॉडी में विटामिन डी की कमी होने पर वजन बढ़ने लगता है. विटामिन डी वजन कम करने मे मदगार होता है. यही कारण है कि विटामिन डी कमी होने पर आपका वेट तेजी से बढ़ने लगता है.

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5.थकान लगना: विटामिन डी की कमी के कारण बॉडी का एनर्जी लेवल कम होता है. जिसके कारण आप जल्दी थक सकते हैं. इसकी कमी होने पर आपको कोई काम करने से पहले ही थकान महसूस होने लगती है. इसके अलावा भरपूर नींद ना लेने से भी शरीर में विटामिन डी की कमी हो सकती है. अगर आपको भी ये सब लक्षण दिखते हैं तो तुरंत डॉक्टर संपर्क करना चाहिए.


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कोरोना काल में वैज्ञानिक दृष्टिकोण की कीमत*

 *कोरोना काल में वैज्ञानिक दृष्टिकोण की कीमत*

*डा .राणा प्रताप सिंह*

 पर्यावरण विज्ञान में प्रोफेसर 

 बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय, लखनऊ

www.ranapratap.in


कोरोना की बार-बार उठ रही लहरों ने दुनिया, देश और विश्व की विशाल आबादी को सदमे और लाचारी से झकझोर कर रख दिया है।

 लंबे समय से प्रतीक्षित टीका आ गया है. टीके का सही असर आंकने में अभी समय लगेगा हालाँकि सभी विशेषज्ञ अभी टीके को ही कोरोना से लड़ने का प्रमुख हथियार मान रहे हैं . भारत सहित कई देशों में टीकाकरण अभी भी प्रारंभिक स्तर पर है , परन्तु बढ़ते संक्रमण और मृत्यु के आकड़ों में बार बार एक खतरनाक उछाल आ रहा है।विशेषज्ञ इसके कई कारण बता रहे हैं। एक यह कि दुनिया भर में कोरोना वायरस के अनेकों अधिक आक्रामक म्यूटेंट बन गए हैं , जो पिछले दिनों के खुले विश्व में यात्रियों के साथ एक देश से दूसरे देश और एक जगह से दूसरी जगह लगातार बीमारी को फैलाते रहे हैं।इसके अलावा, अनेक स्थानीय कारणों से  लोग  चाहे अनचाहे. रोग ग्रस्त लोगों के संपर्क में आ गए ,जैसे भारत में विभिन्न राष्ट्रीय और स्थानीय चुनावों के दौरान , कुंभ और अन्य धार्मिक जुटानों तथा सांस्कृतिक त्योहारों, विवाह समारोहों और चुनाव की सार्वजनिक रैलियों में बड़े पैमाने पर लोंगों के पास पास आने की संभावनाएं बनी ,जो देश में इस  महामारी की इस दूसरी लहर की अवधि के उछाल में बहुत सहायक रहीं ।

     शहर और टीवी चैनलों में कई  बार चर्चा हुई  कि कोरोना काल में साफ  दिख  रहा है समाज में कि हमारे रिश्तों में प्रेम और त्याग का अभाव बढ़ रहा है. हमारी मानवीय चिंताएं और सहयोग की भावनाएं बड़े पैमाने पर  मरती जा  रही हैं , जो  इस  कोरोना काल में अधिक परिलक्षित हुईं हैं . हमने अपने आत्मीयों , करीबियों और जरूरतमंदों से उनके संकट के क्षणों  में भी दूरी बना ली और उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया. क्या यह मात्र डर, भ्रम और स्वार्थ के चलते  हो रहा है , या इसका मुख्य कारण हमारी संस्कृति में व्यक्तिवाद , स्वार्थ और अमानवीयता का बढ़ता प्रभाव है ? क्या हमारे व्यक्तित्व में , हमारी संस्थाओं में , हमारे समाज में तथा हमारी व्यवस्थाओं के वैचारिक विमर्श में स्वार्थपरता ,अवैज्ञानिकता  , अस्पष्टता , आपाधापी तथा गैर पेशेवरपना बढ़ रहे है ? इस पर गंभीरता से बिना किसी वैचारिक , सांस्कृतिक तथा राजनैतिक पक्षधरता के विचार किया जाय तो हमें चिंतित होना पड़ेगा . पिछले कोरोना उफान के पहले का लाक डाउन इसका प्रसार रोकने में अत्यंत प्रभावी रहा था , तब भी भारत सहित अनेक देशों की सरकारें अपने आर्थिक समीकरणों के दबाव में इस बार लाक डॉउन को लंबे समय तक टालती रहीं , पर अंत में वे यही विकल्प चुनने के लिए मजबूर हुईं और तब कोरोना के आंकड़े कम  होना शुरू हुए .ऐसा बहुत लोंगों का मानना है कि इस बार भी लाक डाउन जल्दी हो जाता  और भीड़ को इक्कठा नहीं होनें  दिया जाता तो शायद स्थिति इतनी बेकाबू नहीं  होती.

      हम इस बार सही तरीके से अपने पुराने अनुभवों को विश्लेषित नहीं कर पाए और समझ नहीं  सके ,कि महामारी की पहली लहर में भारत में कोविड प्रबंधन की सफलता के लिए लॉकडाउन एक महत्वपूर्ण कुंजी थी. पिछली बार और इस बार भी हमारे राजनीतिक दल, व्यापारिक समुदाय और नागरिक समाज लॉकडाउन के मुद्दों और कोविड से बचने के लिए तय  प्रावधानों पर सख्ती के मुद्दों पर अत्यधिक बटें हुए नजर आए  और महामारी के संकट का राजनैतिक लाभ लेने के लिए वस्तुस्थितियों को तोड़ मरोड़ कर अपने स्वार्थों के हिसाब से बयान देते  रहे । इसलिए इस बार की असफलता और आपाधापी के लिए सरकारों के साथ साथ विपक्ष और नागरिक समाज , व्यापार  प्रबन्ध की शक्तिशाली मंडली तथा अन्य राजनैतिक धुरंधरों एवं विचारकों को भी कठघरे में खड़ा करना होगा. हमें अपनी व्यक्तिगत , सामाजिक और संस्थागत विचार प्रणाली और कार्य प्रणाली के इतना खंडित , स्वार्थी और इकहरा होने देने से  बचाना होगा , तभी हम एक सम्यक और तर्कसंगत राष्ट्रीय संस्कृति तथा एक आधुनिक , अधिकतम आत्मनिर्भर , खुशहाल और धारणीय राष्ट्र विकसित कर पाएँगें .

        हमारी इस एक निर्णयात्मक चूक ने इस बार अस्पतालों, गलियों, श्मशानों और कब्रिस्तानों में अप्रत्याशित और अभूतपूर्व हाहाकार मचा दिया , जिसकी अब तक किसी ने कल्पना भी नहीं की थी । पिछली महामारी में कुछ ऐसा ही हो हल्ला प्रवासी मजदूरों के पलायन और पैदल यात्रा के दौरान मचा था . इस दौर में उल्लेखनीय रूप से हम देख सकते हैं कि इस तात्कालिक लहर में महामारी उन सभी देशों में समान रूप से गंभीर नहीं रही, जो पिछली बार एक खतरनाक कोरोना उफान  से पीड़ित थे।हमें इसका कारण समझने का प्रयास करना चाहिए . दुनिया कई राजनीतिक , आर्थिक  और भौगोलिक सीमाओं में विभाजित है . हम देंखें तो पिछली बार से अलग इस बार भिन्न वैश्विक समाजों की अलग-अलग सामाजिक-आर्थिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक और वैज्ञानिक सामाजिकता और शासन प्रणालियों के भिन्न दृष्टिकोण के हिसाब से  अलग-अलग तरह से कोरोना संकट का प्रबंधन किया गया है. मात्र एक वर्ष बाद इसके प्रबंधन में आई इस वैश्विक भिन्नता के क्या क्या कारण हो सकते है ? इस पर निष्पक्ष और सार्वभौमिक विचार होना चाहिए .

       क्या इस महामारी की दूसरी लहर में खतरे की भयावहता सरकारों की नीतियों और समाजों की सांस्कृतिक , सामाजिक , आर्थिक स्थितियों एवं उस देश के वैज्ञानिक दृष्टिकोण के स्तर से जुड़ी रही है? या अलग-अलग देशों में अलग-अलग कोरोना म्युटेंट के उपभेद ही मात्र इसके मुख्य कारण हैं ,जिनमें कुछ कोरोना के वेरिएंटों के पास वायरस को मनुष्य में तेजी से फैलाने की अधिक आक्रामक क्षमता और रणनीतियां  पैदा हो गयी हैं ? ये  दोनों कारण  एक साथ आकर हो सकता है कि स्थितियों को अधिक भयावह कर रहें हों । क्या यह अजीब नहीं लगता कि हम सात दशकों के स्वतंत्र राष्ट्र में एक मानवीय मानसिकता, सामाजिक आर्थिक पर्याप्तता, राष्ट्रीय चरित्र, पेशेवर ईमानदारी और एक सक्षम नागरिक और राजनैतिक समाज और शासन प्रणाली नहीं  विकसित कर पाएं हैं जो कम से कम ऐसे भयावह संकट में एक तर्कसंगत तरीके से सोच सके? कहना नहीं होगा कि हम स्वतंत्रता के सात दशकों बाद भी देश  में एक वैज्ञानिक पारिस्थितिकी तंत्र विकसित करने में सफल नहीं हो पाए हैं .देश का भविष्य अब भी बेचैनी से ऐसी किसी गंभीर पहल का  इंतजार कर रहा है, जो बड़े पैमाने पर हमारे समाज और तंत्र में उचित वैज्ञानिक चेतना जगा सके . हमें देखना होगा कि  क्या हमारा समाज और हमारी संस्थाए समय की इस मांग पर गंभीरता से विचार करने के लिए उचित रूप से परिपक्व हो पायी हैं? क्या हमारा राष्ट्रीय दृष्टिकोण भी जातियों , धर्मो , आर्थिक समूहों , राजनैतिक दलों और शासन प्रशासन एवं विपक्ष के हितों के हिसाब से अलग अलग तरह का होगा . फिर हमारी राष्ट्रीयता , सार्वभैमिकता तथा वैश्विकता का मूल चरित्र  क्या होगा? विचारणीय विषय है.

       मानवीय सभ्यता पृथ्वी पर एक नए मानवयुग में आ गयी है, जहाँ  वह अपनी जननी पृथ्वी और उसकी प्रकृति से सीधे मुठभेड़ कर रही है. विज्ञान से उपजी तकनीकों , औजारों और अत्यंत विनाशक हथियारों से लैस होकर मनुष्य की सत्ता पर काबिज सत्ताधीशों के समूह ने ऐसा मान लिया है ,कि  वे पृथ्वी और प्रकृति की उन शक्तियों से जिनमें  ब्रह्माण्ड की अनेक जानी अनजानी अपार शक्तियां भी भागीदार हैं , अधिक ताकतवर हैं . पृथ्वी और उसकी प्रकृति ने कई बार सभी को यह  अहसास करा दिया है , कि वह उसे नहीं ढोती रहेगी जो उसके पूरे जैविक अजैविक तंत्र का पूरक नहीं बनेगा . वह मात्र मनुष्य नहीं  पूरी प्राकृतिक जाल की जननी है और किसी एक या कुछ जीव समूहों के  नष्ट हो जाने पर भी उसकी अपनी यात्रा आसानी से बाधित नहीं  होगी .वर्तमान की जलवायु परिवर्तन की संकटपूर्ण स्थितियाँ और कोरोना महामारी जैसी भयावह स्थितियाँ हमें बार बार आगाह कर रही हैं कि हम नहीं  मानें  तो पृथ्वी का विशाल और शक्तिशाली तंत्र हमें अपनी परिश्थितिकी से  किसी न किसी तरह बाहर कर देगा . मनुष्य द्वारा निर्मित यह मानवयुग जिसे कलयुग भी कहा गया है , वैज्ञानिक दृष्टिकोण के सम्यक , सार्थक और व्यापक फैलाव के न होने के कारण  लगातार सामूहिक संकट की ओर बढ़ रहा  है और हम सचेत नहीं हैं .

     इस घातक महामारी के इस दूसरे भयानक दौर से जुड़ी अन्य स्वास्थ्य समस्याओं एवं कार्यप्रणालियों , तैयारियों और पूर्वानुमानों में आई कमियों , विसंगतियों और बाधाओं के आकलन का कोई वैज्ञानिक , तर्कसंगत , पेशेवर तथा पारदर्शी अध्ययन मनन होगा कि नहीं , कहना कठिन है. हम सबको , परन्तु देश को और दुनिया को समझना होगा कि कोरोना की आगे की स्थितियों और भविष्य की महामारियों एवं आपदाओं के लिए तैयार रहना है, तो हमें इन प्रश्नों से लगातार जूझते रहना  होगा और इस तरह के आकलन केंद्रित जवाबदेह और पारदर्शी अध्ययनों के लिए उचित व्यवस्थाएं बनानी होगी. एक देश के रूप में ,घनी आबादी वाले एक विशाल लोकतंत्र के रूप में और उभरती हुयी एक वैश्विक शक्ति के रूप में भारत के लिए यह भविष्य के संकट को समझने ,उसका विश्लेषण करने और इसके लिए तैयार रहने का समय है. आखिर क्या कारण है ,कि आज जब हम विज्ञान और इंजीनियरिंग के अंतर्निहित सिद्धांतों के माध्यम से प्राप्त कई अत्यंत प्रभावशाली तकनीकी क्षमताओं के साथ स्वयं द्वारा निर्मित मानव युग में रह रहे हैं, तब भी वैश्विक विज्ञान तंत्र एक वर्ष के बाद भी इस विनाशकारी कोरोना वायरस की उत्पत्ति और इसके प्राथमिक स्रोत का पता नहीं कर पाया ।हमें  समझना होगा कि ऐसा विज्ञान की सीमाओ  के कारण हुआ , विज्ञान तंत्र की सीमाओ के कारण या राजनैतिक तंत्र की सीमाओं के कारण . पूँजीवाद के वैश्विक गांव की परिकल्पना मात्र व्यापार जगत के आर्थिक विस्तार तक  ही सीमित है या इसमें व्यापक वैश्विक कल्याण की कोई ईमानदार संभावनाएं  भी हैं , इस पर  विचार करने के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण एक दिशा तो  तय कर ही सकता है .

     मुझे लगता है कि समकालीन समाज में वैज्ञानिक शिक्षा और वैज्ञानिक अभिरुचि पर राजनीतिक और व्यावसायिक हितों के प्रभुत्व ने समाज में विज्ञान की भूमिका को सीमित कर दिया है। इससे विज्ञान और समाज दोनों का संकट और अधिक गहराने वाला है . अविकसित समाजों और संस्कृतियों में आम तौर पर लोग मानते हैं , कि विज्ञान बाजार का एक उपक्रम है जिसमें उसकी भूमिका इस अर्थतंत्र में  अधिक से अधिक उपभोक्ता पैदा करना तथा उसे संगठित रूप से उत्पाद और सेवाएं प्रदान करना है . यह भी कुछ समृद्ध और शिक्षित वर्ग के लोग ही मानते हैं. समाज का वंचित , शोषित तबका तो जानता ही नहीं कि विज्ञान किस चिड़िया का नाम है. सामाजिक व्यवहार और सामाजिक समस्याओं को संबोधित करने में विज्ञान की महत्ती  भूमिका का अंदाजा करने वाले तो हमारे समाज में इक्का दुक्का ही हैं . मुझे हैरानी होती  है कि आधुनिक दृष्टिकोण का दावा करने वाले विचारक, पेशेवर वैज्ञानिकों की भारी भीड़ और नित नए दावे ठोकने वाले मीडिया के संचारक इस साधारण सी बात को समझ क्यों  नहीं  पाते . हमें आधुनिक दृष्टिकोण विकसित करने के लिए विज्ञान की संस्कृति और विधियों को समझने और फैलाने की अत्यंत आवश्यकता है , ताकि हम अपनी समस्याओं को अधिक व्यवस्थित, व्यावहारिक और तर्कसंगत तरीके से समझ सकें और इनका उचित  प्रबंधन कर सकें।


     मैं यहाँ  विज्ञान की कोई अकादमिक परिभाषा  नहीं  तय करना चाहता . शायद यह उतना महत्वपूर्ण भी नहीं  है. जो विज्ञान को  जिस तरह समझेगा उसी के अनुसार स्वयं अपनी परिभाषा भी गढ़ लेगा. हमारे अकादमिक जगत में शास्त्रों को परिभाषाओं में जकड़ कर जड़ करने का रिवाज है , जो निरंतर विकसित हो रहे ज्ञान स्वरूपों की मूल भावना के खिलाफ है. . अच्छे शास्त्रों में परिभाषाएं  कभी ठहरी नहीं  रहतीं , लगातार विकसित होती रहती हैं.विज्ञान के विकास  और विस्तार के लिए यही बेहतर भी है कि  इसे एक परिभाषा में न बांधा  जाय .हर भिन्नता और असहमति को उतना ही सम्मान मिले जितना समता और सहमति को. मेरी समझ में विज्ञान अपने अर्जित ज्ञान पर लगातार प्रश्न उठाते रहने और  एक विस्तृत , पारदर्शी तथा सार्वभैमिक तरीके से बार बार अपने प्रश्नों  के सम्भावित  उत्तर खोजने के लिए एक व्यवस्थित , पारदर्शी और बड़े पैमाने पर स्वीकृत जांच प्रणाली से नतीजों को निरंतर परखते रहना और नए ज्ञान एवं अनुभवों के आधार पर उसे विश्लेषित करते रहना है , ताकि  ठहरे हुए अज्ञान से निरंतर विकसित हो रहे ज्ञान की ओर मनुष्य की यात्रा का भागीदार हुआ  जा सके. इससे तकनीकी उत्पादों के साथ साथ हमारे आसपास जो हो रहा है , उसके कारणों और संभावित परिणामों को भी अधिक गहराई और सार्वभौमिकता के साथ जानना  समझना सम्भव होगा. विज्ञान के विभिन्न उपयोगों को समझने के लिए हमें  समझना होगा कि अन्य ज्ञान प्रणालियों की तरह विज्ञान भी सत्ता , राजनीति, आर्थिक हितों और शासन प्रणाली के हस्तक्षेप से स्वतंत्र नहीं होता , न ही  यह अंतिम और असंदिग्ध  ज्ञान प्रणाली है इसलिए विज्ञान की अंधभक्ति भी उतनी ही खतरनाक है, जितनी  धार्मिक , राजनैतिक , वैचारिक या अन्य किसी तरह की अंध भक्ति .

     अन्य ज्ञान प्रणालियों की तरह विज्ञान भी समाज, राज्य और बाजार द्वारा अपनी नियामक शक्तियों से शासित होता है और इसकी व्याख्या तथा इसका उपयोग अलग अलग लोग या समूह अपने हितों के अनुसार अलग अलग तरह से कर सकते है. अन्य शास्त्रों की तरह विज्ञान में  भी अपनी  शोध उपलब्धियों और विचारों को स्थापित करने के लिए  पूर्व प्रकाशित सन्दर्भों का उल्लेख किया जाता है. इसमें अपनी रूचि और अपने विचारों को समर्थित करने वाले संदर्भो को लिया जा सकता है , और दूसरों को छोड़ा जा सकता है . विज्ञान की फिर भी एक विशेष खूबी है कि उसमें किसी भी  बात को अस्वीकार कर  उस पर प्रश्न उठाना संभव है . इसी तरह हर नई बात को व्यापक स्वीकृति तभी मिलती है , जब वह शोधकर्ता द्वारा या  अन्य  विशेषज्ञों द्वारा अनेक तरीकों से प्रमाणित किया जाता है और उसके बाद भी हमेशा किसी द्वारा भी दुबारा जाँचा जाना मान्य होता है . विज्ञान में स्थापित मान्यताओं को गलत साबित करना और नए ज्ञान को मान्यता मिलने को  एक बड़ी सम्मानजनक खोज माना जाता .इसके पश्चात भी यह माना जाता है कि  जो अब तक मौजूद उपकरणों और विधियों से जाना नहीं  जा सका है , उसे भी  नकारा नहीं जाना  चाहिए . विज्ञान में यह सर्व स्वीकृत है कि नए उपकरणों और नवीन विधियों के उपलब्ध होने पर उस रहस्यमय अज्ञात को खोजा जा सकता है और जाना समझा जा सकता है . विज्ञान और धर्म में  एक अंतर यह दिखता है कि धर्म का अलौकिक ज्ञान धर्म की नजर में हमेशा अलौकिक ही रहता है , जबकि विज्ञान  की नजर में उसमें से जो सत्य है मात्र कल्पना नहीं , वह  कभी भी लौकिक हो  सकता है.

     विज्ञान की इस मान्यता को  कुछ उदाहरणों से समझना आसान है .सूक्ष्मजीवों का अत्यंत  विशाल साम्राज्य सूक्ष्मदर्शी की खोज के पहले ज्ञात नहीं था . नए आणविक उपकरणों और विधियों की खोज के बाद आज माना जाता है , कि  हम अभी मात्र 1-5 प्रतिशत सूक्ष्मजीवों को ही जान पायें हैं  , और वह भी आंशिक रूप से. ऊर्जा और पदार्थों के सम्बन्ध में , जीवों के पर्यावरणीय अन्तर्सम्बन्धों के बारे में , चिकित्सा तथा कृषि के क्षेत्र में लगभग ऐसी ही स्थितियाँ हैं. दूसरी ओर विज्ञान के नियामकों की तरफ देखें तो हम पायेंगें कि 

पूरे विश्व में शासन प्रणाली के सिद्धांत और उसके व्यव्हार राजनीति के सिद्धांतों  से संचालित होते हैं , जिसमें अगले दौर में सत्ता हासिल करने और सरकार का खर्च , शासकों की समृद्धि , विकास के ढांचो तथा सरकार के जन कल्याणकारी कार्यक्रमों की लागत वहन करने केसाथ साथ अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता लागू करने के लिए सत्ता समूह को ज्ञान , धन  और जन समूहों पर नियंत्रण कायम करना होता है. अपने व्यक्तिगत और समूहगत लाभ के लिए राजनैतिक तंत्र अनेक अमानवीय एवं अप्राकृतिक व्यवस्थाएं करता है , और इसमें अन्य साधनों की तरह ही विज्ञान को भी इस्तेमाल होना होता है. इसी तरह व्यापारियों और धनपतियों को विज्ञान का इस्तेमाल अपनी आर्थिक ,वैचारिक और राजनैतिक हितों के लिए करना होता है. यह संयोग नहीं कि विज्ञान का जन पक्षीय और सामाजिक विमर्श अभी बहुत प्राथमिक स्तर पर और सीमित सन्दर्भों में ही हो पाया है.अक्सर सत्ता समर्थित वैज्ञानिक और विज्ञान  प्रतिष्ठान विज्ञान द्वारा सत्ता , राजनीति और व्यापार तंत्र के अवैज्ञानिक विचारों की गठरी ढोने के लिए वैज्ञानिक सिद्धांतों की भी अवैज्ञानिक व्याख्याएं करके तात्कालिक व्यक्तिगत और समूहगत लाभ लेने को तत्पर रहते हैं .शायद इसी कारण वैश्विक स्तर पर भी कोई  बड़ा मौलिक ज्ञान  अक्सर सत्ता और व्यापारिक प्रतिष्ठानों से नहीं निर्मित हो पाता. वहाँ साधन होते हैं , पर स्वतंत्रता  नहीं .

   समकालीन दुनिया में वैश्विक शासन प्रणाली को पूंजी आधारित आर्थिक विकास के हित से नियंत्रित किया जाता है, जिसमें पूंजीगत लाभ बढ़ाने के लिए उद्योगों के मशीनीकरण से उत्पादन और विपणन नेटवर्क में मानवीय भागीदारी को कम करने के सिद्धांतों पर सभी आगामी योजनाएं बनायी जाती हैं ।विज्ञान के तकनीकी उपयोग की इस प्रक्रिया में बहुत बड़ी भूमिका है . इससे कई देशों की बड़ी जनसँख्या का रोजगार छीन जाता है , तो देंखें तो यहाँ  सारी  निर्मलता और निष्पक्षता के बावजूद विज्ञान एक जनविरोधी भूमिका में आ जाता है. दुनिया भर में मानव आबादी बढ़ रही है और अमूल्य गैर-नवीकरणीय प्राकृतिक साधनों के अंधाधुंध दोहन तथा  अत्यधिक उपयोग के कारण पृथ्वी को यह वर्तमान विकास प्रक्रिया एक अस्थिर मानव युग में धकेल रही है, जहाँ स्वयं मानव जाति के अस्तित्व पर संकट गहरा रहा है. इस दोहन और अप्राकृतिक विकास सिद्धांतों में भी विज्ञान की निर्णायक भूमिका है , जो  विज्ञान के धारणीय विकास सिद्धांतों के खिलाफ काम करती है.इस तरह देखें तो विज्ञान स्वयं विज्ञान के खिलाफ भी युद्धरत है.पृथ्वी के अत्यंत कीमती प्राकृतिक संसाधनों की अंधाधुंध खपत की कीमत पर भौतिक रूप से मानवीय आराम हासिल करने योग्य वस्तुओं के लिए उत्पादन प्रणाली के तकनीकी और औद्योगिक विस्तार के माध्यम से तीव्र आर्थिक विकास संभव है. बाजार और व्यापार आधारित इस आर्थिक समृद्धि में विज्ञान की तात्कालिकता की खूबियां धारणीय वैश्विक विकास में हस्तक्षेप का साधन बन रही हैं . वैश्विक अर्थतंत्र के इस अभूतपूर्व तकनीकी उछाल और निरंतर विस्तारित हो रहे औद्योगिक जाल की सफलता काफी हद तक वैज्ञानिक सिद्धांतों के तकनीकी उपयोगों का ही परिणाम है ,जो दुनिया के आर्थिक तंत्र और विपणन तंत्र के दिग्गजों द्वारा नियंत्रित है।

    उनका दृष्टिकोण कॉर्पोरेट प्रतियोगिताओं के साथ वस्तुओं और सेवाओं की बिक्री के लिए कीमतों में कमी और विपणन प्रबंधन के साथ आर्थिक विकास हासिल करना है। वे इस बात को महत्व  नहीं देते  कि बाजार में गैर-अपघटनीय सामग्री वाले उत्पादों को भारी मात्रा में निर्मित कर उपयोग में लाने से प्राकृतिक संसाधनों का आवश्यक एवं अनावश्यक दोनों तरह का तेज गति से विनाश हो रहा है. साथ ही साथ भारी मात्रा में अनावश्यक अपशिष्ट पैदा हो रहे हैं, जो दीर्घकालिक आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए तो नुकसानदेह हैं ही , प्राकृतिक स्थिरता के भी अत्यंत घातक हैं . इस तरह देखें तो विज्ञान की मदद से चलने वाली अवैज्ञानिक अर्थव्यवस्था ने  सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय अस्थिरता के साथ कुछ आवश्यक और अनेक गैर-आवश्यक उत्पादों के लिए अत्यधिक उत्पादन और खपत का बड़े पैमाने पर वैश्विक औद्योगीकरण और विपणन का एक अप्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र बनाया है।इस वैश्विक दिशाभ्रम ने सभी समाजों में एक ऐसी अंधी , अर्थवादी और उपभोगवादी भीड़ पैदा कर दी है , जिसमें घोर बेईमानी , रिश्वतखोरी , असामाजिक , अमानवीय , व्यक्तिवादी संस्कृति का विस्तार होना ही है. इस संस्कृति ने वैश्विक और राष्ट्रीय प्राकृतिक और मानव संसाधनों के कुप्रबंधन को बड़े पैमाने पर समर्थन देना शुरू कर दिया है।इसे रोका नहीं जा सका तो यह नया मनवयुग मनुष्य को ही खा जायेगा .

     वैश्विक रूप से एक वैकल्पिक परिप्रेक्ष्य के साथ, संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा सतत विकास लक्ष्यों को भी हाल ही में प्रस्तुत किया गया है, जो बिना किसी कार्यकारी शक्ति का एक निकाय है, फलतः हम आर्थिक समृद्धि के सिद्धांत पर चलने वाले समकालीन राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय शक्तियों के खिलाफ जाने वाली इस हरित अर्थव्यवस्था को अपनाने और इसके निष्पादन हो पाने के भाग्य को नहीं जानते हैं। विज्ञान की समग्र समझ रखने वालों को पता है,कि अपने अल्पकालिक और दीर्घकालिक  लाभों की सही समझ विकसित करने के लिए सही वैज्ञानिक मानसिकता, वैज्ञानिक दृष्टिकोणों और सुव्यवस्थित वैज्ञानिक सिद्धांतों तथा पेशेवर पद्धतियों के साथ काम करने की आवश्यकता है. इसके अतिरिक्त हमारे पास कोई अन्य विकल्प नहीं है। यह हमें एक मानवीय संस्कृति , धारणीय विकास, कुशल आपदा प्रबंधन , महामारियों से बचाव  के दीर्घकालिक उपाय और वर्तमान तथा भविष्य के संभावित संकटों को समय रहते समझने और उचित तरीके से प्रबंधित करने में मदद करेगा। यदि हम अपनी शासन प्रणाली और नागरिक समाजों में वैज्ञानिक चेतना तथा पेशेवर कार्यप्राली को कायम कर सकें एवं अल्पकालिक योजनाओं के साथ दीर्घकालिक योजनाएं भी लागू कर पाएं तो हम निश्चय ही एक अधिक मानवीय संस्कृति तथा मनुष्य और पूरे प्राकृतिक तंत्र के लिए अधिक उपयोगी  सतत विकास पथ निर्मित कर सकते हैं , जिसमें सामाजिक , सांस्कृतिक और राष्ट्रीय अस्मिताएँ एक वास्तविक वैश्विक गांव का हिस्सा बन सकें ।

      वर्तमान कोरोना संकट में निश्चित रूप से इससे बहुत मदद मिल सकती है , क्योंकि इन वैज्ञानिक सामाजिक धारणाओं एवं पेशेवर कार्य संस्कृतियों ने महामारी की इस नई लहर के दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका और कई अन्य विकसित देशों की मदद की है।सभी देशों और समाजों में कोई  भी संकट प्रबंधन सरकारों, नौकरशाही, संस्थानों और नागरिक समाज द्वारा लगभग एक  समान सामाजिक पारिस्थितिकी तंत्र, सामाजिक संस्कृतियों और व्यक्तिगत मानसिकता के आधार पर ही किया जाता है. विभिन्न स्तरों पर एक अवैज्ञानिक व्यवहार हमें संकट की अवधि में दीर्घकालिक योजना और विचारशील निष्पादन के साथ पहले से उचित रूप से सोचने की अनुमति नहीं देगा विशेष तौर पर जब हमारा बुनियादी ढांचा पर्याप्त नहीं है . जो है वह भी  ऐसी स्थितियों के लिए अच्छी तरह से काम नहीं कर पा रहा है। प्रारम्भ से ही कोरोना पर निवेश , योजनाओं और शोध की दिशाएं स्वास्थ्य प्रबंधन के बुनियादी ढांचे के परिमार्जन तथा विस्तार के बजाय वैक्सीन उत्पादन और विपणन पर अधिक केंद्रित थी।फलतः कम समय में ही वैक्सीन उपलब्ध हो पायी पर स्वास्थ्य ढाँचे नहीं सुधर पाए .

     यह सही है कि स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे के लिए गुणवत्तापूर्ण जनशक्ति के प्रशिक्षण, अच्छी गुणवत्ता वाले अस्पतालों और मेडिकल कॉलेजों के निर्माण, विशिष्ट मशीनों और सामग्रियों के उत्पादन और स्थापना की आवश्यकता होती है और इसे एक साल में हासिल नहीं किया जा सकता है, भले ही हम इस पर पर्याप्त दूरदृष्टि और प्राथमिकताओं के साथ काम करें। लेकिन संक्रमण के प्रसार की रोकथाम को कम समय में भी बेहतर तरीके से प्रबंधित किया जा सकता है . परन्तु इसके लिए सरकारों और लोगों को लापरवाही की संस्कृति, महामारी से बचाव के लिए उचित व्यवहार की अज्ञानता और गैर-पेशेवर अवैज्ञानिक कार्य संस्कृति से उबरना होगा . अपने विज्ञापन के सघन और चमत्कारी अभियानों से व्यावसायिक दिग्गज अक्सर सरकारों की  योजनाओं और नीतियों को तथा जनता के दिमागों को बड़े पैमाने पर नियंत्रित कर लेते हैं. व्यवसायों के दिग्गजों की उपभोक्ता तथा वाणिज्य प्रबंधन तथा तेज प्रसार में अर्थशास्त्र , वाणिज्य और राजनीति के शास्त्रों के सिद्धांतों तथा व्यवहारिक ज्ञान के उपयोगों के साथ विज्ञान का  भी खूब उपयोग होता है जैसे सूचना तकनीकों के इस्तेमाल के बिना यह संभव नहीं था .

    इस सबके बावजूद जनता बड़े पैमाने पर विज्ञान के सामाजिक लाभों के बारे में जागरूक नहीं है. लोगों के जेहन में विज्ञान एक दर्शन के रूप में और एक विचार प्रक्रिया के रूप में कोई स्थान और स्पष्ट स्वरूप नहीं बना पाया है। जबकि ज्ञान के एक स्वरुप के रूप में विज्ञान की समकालीन समाज के आर्थिक ,सामाजिक ,सांस्कृतिक हितों और राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय ढांचों के सतत विकास में बहुत सारी भूमिकाएँ हैं। दरअसल भारत में विज्ञान संचार का ढाँचा  बहुत कमजोर और अस्पष्ट है. विज्ञान के नाम पर क्या संचारित होना है , इस पर अभी बहुत विवाद है. यह विवाद तभी हल हो सकता जब यह तय हो जाए कि विज्ञान किस रूप या किन किन रूपों में किन समाजों के लिए हितकर है.बहुसंख्यकों के दिमाग में विज्ञान को एक उत्पाद और सेवाओं के रूप में ही  देखा समझा जाता है ,जिसे खरीद कर अपनी  सुविधाओं के लिए उपयोग किया जाना है . और यह तभी संभव है जब उपभोक्ताओं के पास अधिक से अधिक धन हो । हमें जनता में विज्ञान की उस संस्कृति को विकसित करना चाहिए , जो विज्ञान को उसके पूरे कद में जनपक्षीय विस्तार के साथ उसके सभी आयामों की समझ पैदा कर  सकें. आम लोग भी  मान पाएं कि विज्ञान एक उत्पाद और सेवा से कहीं अधिक एक धारणीय और व्यवस्थित  ज्ञान पद्घति है, जो उनकी खुशहाली के लिए बहुत उपयोगी हो सकती है । लोगों तक यह बात पहुंचा पाना कि  विज्ञान वास्तव में एक सोचने, काम करने और जीने का दूरदर्शी तरीका है , जो हमें निरंतर  सत्य की ओर ले जाता है अब भी एक बड़ी चुनौती है. लोगों को विश्वास दिला पाना कि विज्ञान  उन  रहस्यमयी अज्ञात घटनाओं और असमझी सच्चाईयों को जानने  समझने  का एक भरोसेमंद शास्त्र है ,जो हमें लगातार भौतिक, मानसिक , सामाजिक , सांस्कृतिक तथा आर्थिक स्तर पर प्रभावित करती रहती हैं , भारतीय विज्ञान की एक बड़ी खाई है , जिसे पाटने वाले कर्मयोगियों की तलाश इस देश की  मिट्टी को जाने कब तक और करना पड़ेगा . 

        इस अनावश्यक विरोध और भ्रम से भी हमें निकलना है , कि विज्ञान धर्म, अध्यात्म, साहित्य, संस्कृति, कलाओं और अर्थशास्त्र जैसे अन्य ज्ञान स्वरूपों   के खिलाफ  है . बहुत बड़ी संख्या में लोग विज्ञान के विरोधी इसीलिये बन जाते हैं, क्योकिं वे किसी अन्य ज्ञान स्वरुप के विशेषज्ञ और पोषक होते  हैं। सभी तरह की ज्ञान और शिक्षण प्रणालियाँ वास्तव में जमीनी स्तर पर एक दूसरे से भिन्न होने के बावजूद सत्य को उसके पूरे कद में समझने के लिए एक दूसरे की पूरक भूमिका निभाती हैं . जैसे नवीन व्यावहारिक ज्ञान की खोज के लिए विज्ञान का तरीका अधिक सटीक है , तो इसके बृहद संचार के लिए साहित्य एवं कलाएं अधिक उपयुक्त हैं.विज्ञान की सामाजिक प्राथमिकताओं को तय करते समय समाज विज्ञान अधिक उपयोगी है, तो उसके व्यापार के लिए अर्थशास्त्र , वाणिज्य तथा व्यापार प्रबंधन का ज्ञान अधिक मददगार हो सकता है.यह मात्र संयोग नहीं है कि , पिछले वर्ष से दो तीन बार हुए कोरोना महामारी के हमलों के बढ़ते जाने के बावजूद, हम इसके बारे में अब भी बहुत कम जान पाए हैं। जिस तरह से व्यावसायिक घरानों की योजनाओं और दृष्टिकोणों के तहत वैज्ञानिकों ने टीकाकरण बाजार पर कब्जा करने के लिए युद्ध स्तर पर काम किया, उन्होंने इसके हमलावर व्यवहार और प्रसार तंत्र को समझने के लिए काम नहीं किया. हम देख सकते हैं कि आर्थिक या सांस्कृतिक रूप से अधिक विकसित देशों में समाज और सरकारें अधिक पेशेवर और स्वकेन्द्रित रही हैं , जिससे वे महामारियों के अगले दौर के संभावित संकट के लिए अधिक तैयार हैं। दूसरी ओर, अत्यधिक आबादी वाले विकासशील देश जिनमें बीमारी के शीघ्र प्रसार का जोखिम अधिक है, हर  नए दौर में अधिक गंभीर समस्याओं का सामना कर रहे हैं। इस तरह देखें तो राष्ट्रवाद का यह एक अच्छा उपयोग है , क्योंकि कोई भी देश  पूरे विश्व की समस्याओं को नहीं  सम्हाल सकता .हमारे देश की एक बहुत बड़ी जनसँख्या शहरों के सघन क्षेत्रों में रहती है. हमारे शहर, अस्पताल , स्कूल , कालेज , यातायात के साधन और बाजार ठसाठस भरे हुए रहते है. सड़कों पर जहाँ लोग और साइकिलें चलती थी, आर्थिक उदारीकरण के बाद दो पहिया और चारपहिया मोटरगाड़ियों की कतार  निरन्तर धुआं और धूल फेंकती रहती हैं.हम भारत में जनता के रूप में और शासन प्रणाली के रूप में अधिक कॉस्मेटिक, कम पेशेवर और कम से कम वैज्ञानिक साबित हो रहे हैं और इसकी भारी कीमत चुका रहे हैं । हम अपने अवैज्ञानिक और गैर-पेशेवर दृष्टिकोणों के कारण उपलब्ध संसाधनों के धारणीय उपयोग और व्यवस्थाओं के कुप्रबंधन के कारण  भी निरंतर पीड़ा झेलने को अभिशप्त हैं . शहरों की सघनता के विपरीत गांव शिक्षा , स्वास्थ्य सेवाओं , सांस्कृतिक उदासीनता , आर्थिक अभाव  और रोजगार न उपलब्ध होने से उपेक्षा एवं पलायनजनित वीरानगी के द्वीप बनते जा रहे हैं।

       भ्रष्टाचार की संस्कृति और व्यक्तिगत तथा संस्थागत ईमानदारी के अनादर, कानूनों और सामाजिक ,सांस्कृतिक नियमों की अज्ञानता और पेशेवर मानसिकता की कमी ने कोरोना संकट के दौरान ऑक्सीजन, महत्वपूर्ण दवाओं और उपकरणों आदि के अनधिकृत भंडारण और कालाबाजारी के रूप में अपने बदसूरत चेहरों के साथ हमें  दुनिया भर में शर्मसार किया है। संक्रमण के प्रसार और स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे और जीवन समर्थन प्रणालियों की अनुपलब्धता के कारण यह अमानवीय प्रवृति असामान्य रूप से अमानवीय नजर आयी । जब अधिक समझदार समाज और व्यवस्थाएं बढ़ती स्वास्थ्य समस्याओं के साथ महामारी से भविष्य में होने वाले संभावित मुठभेड़  की तैयारी कर रहे थे,हम अपने तरीके से अन्य स्थानीय सामाजिक ,सांस्कृतिक और राजनैतिक व्यवस्थाओं में व्यस्त थे। कहना नहीं होगा कि यदि हम खाद्य सुरक्षा, स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं और आवास स्थिरता के लिए अपने भविष्य के रोडमैप को फिर से तैयार करने में सक्षम नहीं होंगे, तो भविष्य में खाद्य सुरक्षा और पर्यावरणीय स्थिरता में हमें इसी तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है।

      भविष्य में अपनी उभरती चुनौतियों का पता लगाने और इसके समाधान के लिए लगातार बढ़ती रणनीतियों को समझने के लिए तथा इसके लिए विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण विकसित करने के लिए हमें अपनी खोजों पर सवाल उठाने और जवाब देने होंगें  तथा अपने विचारों और  कार्यपद्धतियों को बार-बार संशोधित करने की आवश्यकता होगी . इसके अलावा हमें एक साथ रहने और दूसरे के विचारों और कार्यों  के प्रति सम्मान विकसित करने की भी आवश्यकता होगी जो हमारे बीच से लगातार गायब होता जा रहा है। हमें यह समझने की जरूरत है कि एक साझा अस्तित्व ही प्रकृति का सिद्धांत है और इसी के लिए एक दृष्टिकोण के रूप में दुनिया स्वार्थ और परोपकारिता के साथ साथ विकसित हुई है।तब भी  यह माना जाना चाहिए कि इंसान होना स्वार्थी होने से ज्यादा परोपकारी होना है . योग्यतम के चुनाव में प्रकृति  मात्र संघर्ष नहीं बल्कि सह अस्तित्व , सहजीवन और परोपकारिता के साथ सामूहिक रूप से जीवित रहने की एक प्राकृतिक व्यवस्था को अपना समर्थन देती है।हमें मनुष्य और उसकी दुनिया के हित के लिए प्रकृति के संदेशों और संकेतों को उनके सही परप्रेक्ष्य में समझना होगा .

Rediscover being a doctor*

 



*Rediscover being a doctor*

15   to 20 mg cortisol secreted in normal stress of human beings. 150 mg under maximum stress. A study shows Surgeons anaethetist in India exceed this 150 mg frequently in a day, that is 10 to 15 times more than the Military Colonel in battle field. Doctors in Tamil Nadu Government service frequently cross 80mg per day and 150 mg at least twice a month,all of us know the adverse effects of cortisol in our body.

“Survey : How happy & satisfied are doctors”

Total 1781 responses were received & following were the observation:

# Only 37.7% of doctors were satisfied
# Only 45.1% doctor’s got complete 7 hr. sleep
# 82% doctors felt stressed out
# 34.5% doctors had high blood pressure
# 18.6% doctors had diabetes
# 61.6% doctors had a fear of violence, while giving consultation.
# 56.5% doctors had thought of hiring security in their clinic premises.
# Only 8% doctors had 1st choice for their children to become doctor
# 75.6% doctors had anxiety.
# 26.4% doctors indulged in social drinking.
# 45.4% doctors were afraid of possible violence
# 24.6% doctors were afraid of being sued.
# 13.5% doctors were afraid for criminal prosecution

“Doctors die early. National IMA study showed that Indian doctors die 10 year earlier than the normal age and Kerala study showed that they died even 13 years earlier.”

If one doctor die, to make another doctor we need 30 years and have to spend crores of public money, it is people's money. In case a doctor die, his unavailable services during those 30 years many common people may die. Common people are safe only if they exist.

“Do you know” ?
@ that when treating you of your viral fever your doctor gets exposed to the virus?
@ that when doing surgery your doctor gets cuts and pricks that may transmit disease from patient to doctor?
@ that when your doctor dresses your diabetic foot, they feel nauseated by smell and do not feel like eating for the whole day?
@ that when during a delivery the patient often passes urine and motion that may spills on the doctor?
@ that even though your doctor's own child might be suffering from fever, he has to leave him to others as he has to go and treat others while his own child suffers?
@ that for every delivery case your doctor has to attend at least 10 calls throughout night.. And then be back to work early next day?
@ that when a neurosurgeon operates for 12 hours continuously he loses track of time and forgets to eat or sleep?
@ that a cardiologists and orthopodic surgeon are exposed to dangerous levels of radiation in the lab/OT.
@ that the life span of doctors is 10 years less than public average because of stress?

With their level of intelligence they could earn more money if that have been the sole motive, had they chosen other professions.

PS: Forwarded post ....

Break up with phones

         In this article, we’ll look at five main problems that are causing people to "break up with their

phones" or quit social media altogether. These are the toxic parts of the new online world.

As businesses, we need social media to be relevant and stay in the eyes of the consumer, too. However,
there are lines that could be crossed if you aren’t careful. Here are just a few issues that are
erupting every day on the internet:
1. Too much content
Ever heard of the "endless scroll?" People become addicted to constantly checking their social media
feeds and companies are constantly posting ads, blogs, photos, questions and podcasts.

The brain can go through serious fatigue even without the added visual stimulation of the real world.
Many young people are being diagnosed with ADHD and similar behavioral issues because of this kind of
content overload.
2. Jealousy and constant competition
With photoshopped images and filters everywhere, it’s no wonder that the statistics for depression,
loneliness, self-esteem issues and suicides are on the rise. Sadly, plenty of companies are taking
advantage of this and posting envy-worthy bodies and lifestyles to make a quick buck from those with
low self-esteem.

3. Cancel culture
This is a more recent phenomenon for social media, where many are being "called out" for their past
transgressions. In some ways, it’s great — the #MeToo movement and other similar movements are weeding
out awful people that have held power for far too long.

However, this trend is also affecting people in a bad way as well. Many "cancellations" were incorrect
but already forever ruined someone’s reputation.

Does cancel culture mean you can’t make mistakes? We’re human, and mistakes are bound to happen, no
matter how careful you are as an individual or company.
4. Not enough fact-checking
"Fake news" is everywhere and sometimes people can’t tell the difference. Of course, Facebook and other
companies are attempting to mitigate the problem, trying to stop conspiracy theories or forcing
articles to go through fact-checks. However, it’s still a very real problem that, in some cases, can
cause huge political upheavals and deadly consequences.
5. Diagnosis without experience
This isn’t just medical. It also calls upon other service industries as well.

Suddenly everyone’s a doctor, plumber or dietitian from watching a YouTube video when, in reality, we
know that most of the expert work comes from years of hands-on experience and education.

This causes a lot of issues and has a real-world impact. Sure, you can pick up some handy tips from the
internet, but you can’t diagnose yourself with a deadly disease just because a website said you had a
few symptoms.

These problems aren’t going anywhere for a while unless the social media companies, governments, and
other technologies can start combating them correctly. Social is now too integral to business success
to stop using, but these are just a few things to keep in mind next time you’re hitting “post” online.

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About the Author
Mashaal Ryan
Mashaal Ryan is a content editor at MultiView. She is based in Dallas, Texas, and graduated from Baylor
University with an English degree in 2014. She blogs somewhat regularly and enjoys writing lifestyle
pieces. In the past, she has worked in marketing as well as journalism.

Thanks and Regards,
Dr. R.S. Dahiya